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च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ अस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सो अस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ आ वि॑वेश ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

catvāri śṛṅgā trayo asya pādā dve śīrṣe sapta hastāso asya | tridhā baddho vṛṣabho roravīti maho devo martyām̐ ā viveśa ||

पद पाठ

च॒त्वारि॑। शृङ्गा॑। त्रयः॑। अ॒स्य॒। पादाः॑। द्वे॒ इति॑। शी॒र्षे इति॑। स॒प्त। हस्ता॑सः। अ॒स्य॒। त्रिधा॑। ब॒द्धः। वृ॒ष॒भः। रो॒र॒वी॒ति॒। म॒हः। दे॒वः। मर्त्या॑न्। आ। वि॒वे॒श॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:58» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में ईश्वर के विज्ञान को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (महः) बड़ा सेवा और आदर करने योग्य (देवः) स्वप्रकाशस्वरूप और सब को सुख देनेवाला (मर्त्यान्) मरणधर्मवाले मनुष्य आदिकों को (आ) सब प्रकार से (विवेश) व्याप्त होता है (वृषभः) और जो सुखों को वर्षानेवाला (त्रिधा) तीन श्रद्धा, पुरुषार्थ और योगाभ्यास से (बद्धः) बँधा हुआ (रोरवीति) निरन्तर उपदेश देता है (अस्य) इस धर्म से युक्त नित्य और नैमित्तिक परमात्मा के बोध के (द्वे) दो उन्नति और मोक्षरूप (शीर्षे) शिरस्थानापन्न (त्रयः) तीन अर्थात् कर्म, उपासना और ज्ञानरूप (पादाः) चलने योग्य पैर (चत्वारि) और चार वेद (शृङ्गा) शृङ्गों के सदृश आप लोगों को जानने योग्य हैं और (अस्य) इस धर्म व्यवहार के (सप्त) पाँच ज्ञानेन्द्रिय वा पाँच कर्मेन्द्रिय अन्तःकरण और आत्मा ये सात (हस्तासः) हाथों के सदृश वर्त्तमान हैं और उक्त तीन प्रकार से बँधा हुआ व्यवहार भी जानने योग्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस परमेश्वर से व्याप्त संसार में यज्ञ के चार वेद और नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि शृङ्ग हैं। तीन सवन अर्थात् त्रैकालिक यज्ञकर्म तीन काल कर्म, उपासना, ज्ञान मन, वाणी, शरीर इत्यादि पाद हैं। दो व्यवहार और परमार्थ नित्य, कार्य्य शब्दस्वरूप उदगयन और प्रायणीय अध्यापक और उपदेशक इत्यादि शिर हैं। गायत्री आदि सात छन्द सात विभक्तियाँ, सात प्राण, पाँच कर्म्मेन्द्रिय शरीर और आत्मा इत्यादि सात हस्त हैं। तीन मन्त्र, ब्राह्मण, कल्प और हृदय, कण्ठ, शिर में श्रवण, मनन, निदिध्यासनों में ब्रह्मचर्य्य, श्रेष्ठ कर्म, उत्तम विचारों के बीच सिद्ध यह व्यवहार महान् सत्कर्त्तव्य और मनुष्यों के बीच प्रविष्ट है, यह सब जानें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविज्ञानमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो महो देवो मर्त्याना विवेश यो वृषभस्त्रिधा बद्धो रोरवीति अस्य परमात्मनो बोधस्य द्वे शीर्षे त्रयः पादाश्चत्वारि शृङ्गा च युष्माभिर्वेदितव्यान्यस्य च सप्त हस्तासस्त्रिधा बद्धो व्यवहारश्च वेदितव्यः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चत्वारि) चत्वारो वेदाः (शृङ्गा) शृङ्गाणीव (त्रयः) कर्मोपासनाज्ञानानि (अस्य) धर्म्मव्यवहारस्य (पादाः) पत्तव्याः (द्वे) अभ्युदयनिःश्रेयसे (शीर्षे) शिरसी इव (सप्त) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि वा कर्म्मेन्द्रियाण्यन्तःकरणमात्मा च (हस्तासः) हस्तवद्वर्त्तमानाः (अस्य) धर्मयुक्तस्य नित्यनैमित्तिकस्य (त्रिधा) श्रद्धापुरुषार्थयोगाभ्यासैः (बद्धः) (वृषभः) सुखानां वर्षणात् (रोरवीति) भृशमुपदिशति (महः) महान् पूजनीयः (देवः) स्वप्रकाशः सर्वसुखप्रदाता (मर्त्यान्) मरणधर्मान् मनुष्यादीन् (आ) समन्तात् (विवेश) व्याप्नोति ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अस्मिन् परमेश्वरव्याप्ते जगति यज्ञस्य चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता विश्वतैजसप्राज्ञतुरीयधर्मार्थकाममोक्षाश्चेत्यादीनि शृङ्गाणि, त्रीणि सवनानि त्रयः कालाः कर्म्मोपासनाज्ञानानि मनोवाक्छरीराणि चेत्यादीनि पादाः, द्वौ व्यवहारपरमार्थौ नित्यकार्यौ शब्दात्मानावुदगयनप्रायणीया अध्यापकोपदेशकौ चेत्यादीनि शिरांसि, गायत्र्यादीनि सप्त छन्दांसि सप्त विभक्तयः सप्त प्राणाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि शरीरमात्मा चेत्यादयो हस्तास्त्रिषु मन्त्रब्राह्मणकल्पेषूरसि कण्ठे शिरसि श्रवणमनननिदिध्यासनेषु ब्रह्मचर्य्यसुकर्मसुविचारेषु सिद्धोऽयं व्यवहारो महान् सत्कर्तव्यो मनुष्येषु प्रविष्टोऽस्तीति सर्वे विजानन्तु ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! या परमेश्वराने व्याप्त केलेल्या संसारात यज्ञाचे चार वेद व नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात, विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इत्यादी शृंग आहेत. तीन सवन यज्ञ कर्म, तीन काल, कर्म, उपासना, ज्ञान, मन, वाणी शरीर इत्यादी पाद आहेत. दोन व्यवहार व परमार्थ, नित्य कार्य शब्द स्वरूप उदगयन व प्रायणीय, अध्यापक व उपदेशक इत्यादी मस्तक आहेत. गायत्री इत्यादी सात छन्द, सात विभक्ती, सात प्राण, पाच कर्मेंद्रिये, शरीर व आत्मा इत्यादी हात आहेत. तीन मंत्र, ब्राह्मण, कल्प व ह्रदय, कंठ व मस्तकात श्रवण, मनन, निदिध्यासनात ब्रह्मचर्य, श्रेष्ठ कर्म, उत्तम विचारात सिद्ध हा व्यवहार महान सत्कर्तव्य माणसात प्रविष्ट आहे हे सर्वांनी जाणावे. ॥ ३ ॥